वन गुर्जरों, घुमंतू पशुपालकों की संस्कृति और जीवन शैली पर आधारित सम्मेलन -भारत के जंगलों में रहने वाले गुर्जरों,घुमंतू पशुपालकों के अधिकारों के लिए वन कानून में काफी सुविधाएं दी गई है-अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने की आवश्यकता अवधेश कौशल


ऋषिकेश 25 मार्च ।  पद्मभूषण अवधेश कौशल ने कहा कि उत्तराखंड सहित देश के सभी जंगलों में गुर्जरों के साथ घुमंतू पशु पालकों की समस्याओं के निवारण के लिए बने वन अधिकार कानून मैं वन निवासी आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक व निवासी समुदायों के वन संसाधनों पर अधिकारों की मान्यता दी गई है।

जिसके प्रति सभी को जागरूक रहने की आवश्यकता है ।यह विचार अवधेश कौशल ने उत्तराखंड सेंटर फॉर पेस्टोरलिस्म और वन गुर्जर ट्राइबल युवा संगठन द्वारा आयोजित उत्तराखंड के वन गुर्जरों, घुमंतू पशुपालकों की संस्कृति और जीवन शैली पर आधारित दो दिवसीय सम्मेलन के दूसरे दिन वन गुर्जरों की समस्याओं पर पर आधारित गंगाभोगपुर मल्ला कोडिया गांव में अमीर हमजा के संचालन में सम्मेलन‌ के दौरान ‌‌‌उपस्थिति को संबोधित करते हुए कहा कि पिछले कई दशकों से जंगलों में रहकर अपने बच्चों का पालन पोषण कर रहे, घुमंतू पशुपालकों की काफी समस्याएं हैं,जिन का निदान किया जाना अत्यंत आवश्यक है ।

जिनके के लिए वन अधिकार कानूूून भी बनायाा गया है ,परंतु उसका लाभ सबको नहीं मिल पा रहा है ।जबकि कानूून के अंतर्गत वन अधिकार अधिनियम 2006 ऐतिहासिक कानून है, जोकि वन निवासी आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक समुदाय के उन वन संसाधनों पर अधिकारों को मान्यता देता है ,जिन पर यह समुदाय रोजगार ,निवास और अन्य सामाजिक ,सांस्कृतिक जरूरतों के लिए निर्भर हैं ।इस कानून के पारित किए जाने तक ब्रिटिश काल की और स्वतंत्रता के बाद के भारत की वन प्रबंधन नीतियों में जंगलों और उन पर निर्भर समुदायों के जीवन वन संरक्षण से जुड़ी इन समुदायों की पारंपरिक समझ दोनों को भी नजरअंदाज किया जाता रहा है।

उन्होंने कहा कि भारत में घुमंतु समुदाय सहित ऐसे लाखों परिवार हैं ,जो अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर ही निर्भर है आदिकाल से ही इन समुदायों का जंगलों से नजदीकी और अटूट रिश्ता रहा है ।जो कि अपने जीवन को बचाने के लिए जंगलों के महत्व को पहचानते हुए यह समुदाय साझा स्वामित्व सामुदायिक मूल्यों और आध्यात्मिक सिद्धांतों के आधार पर इन जंगलों का प्रबंधन करते रहे हैं ।

उन्होंने कहा कि इमारती लकड़ी के लिए व्यवसाय स्थल पर जंगलों के दोहन को बढ़ावा देने वाली ब्रिटिश नीतियों के कारण इन जगहों पर समुदायों के स्वामित्व और पारंपरिक अधिकारों को छीन लिया गया ,और जंगलों तक उनकी पहुंच को सीमित कर दिया गया है। जिसके कारण कई परिवारों के रोजगार उनसे छीन ले गए और उन्हें समाज के हाशिए पर धकेल दिया गया है ।अवधेश कौशल ने बताया कि इस कानून के तहत व्यक्तित्व और सामुदायिक दोनों के अधिकारों के लिए प्रावधान किए गए हैं ,व्यक्ति अधिकारों के लिए खुद खेती करने और आवास का अधिकार भी शामिल है ।

सामुदायिक अधिकारों के दायरे में उन सभी गतिविधियों को शामिल किया गया है। जो पारंपरिक रूप से समुदायों के जंगलों के साथ टिकाऊ रिश्तो पर आधारित है ।जिसमें घुमंतू पशुपालकों द्वारा गांव का मौसम इस्तेमाल भी शामिल है ।इस कानून में अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक व निवासी समुदायों के अधिकारों को मान्यता दी गई है ।जिसमें यह भी बताया गया कि बुनियादी जरूरतों के लिए वनों के इस्तेमाल प्रभावितों के अधिकारों के लिए नियम बनाए गए हैं, जिसमें वन अधिकार कानून अनुसूचित जनजाति और अन्य निवासियों को बेदखली के खिलाफ संरक्षण प्रदान किया जाना भी है, सम्मेलन में कासिम गनी‌ ने बताया कि संपूर्ण भारत वर्ष में घुमंतू पशुपालकों की संख्या वैसे तो डेेढ करोड बताई गई है, परंतु वास्तविक संख्या कुछ और है ।

पशुपालक करीब 200 करोड अलग-अलग समुदाय से आते हैं, और कुल 500 करोड़ पशुधन की देखरेख का काम यह घुमंतू पशु पालन करते हैं। आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों की सरकारी भवनों को आरक्षित और अन्य श्रेणी के वनों के रूप में वर्गीकृत किए जाने का विपरीत असर पड़ा है। सरकारी वनों के सुरक्षित किए जाने के कारण पशुपालकों से छीन लिया गया है ।

जिसके कारण गुजरात के कच्छ के बन चालंगा संरक्षित वन के रूप में अधिसूचित और हिमाचल के कांगड़ा जिले में स्थित बड़ा भंगाल क्षेत्र वन्य जीव अभ्यारण के रूप में घोषित किए गए हैं ।इसी प्रकार उत्तराखंड में राजाजी नेशनल पार्क के अंतर्गत पशु पालकों के
अधिकारों पर डाका डाला जा रहा है, जोकि चिंता का विषय है, सम्मेलन का संचालन कर रहे अमीर हमजा ने कहा कि हमारी संस्कृति और जीवन शैली के संबंध में आने वाली पीढ़ी को भी अवगत कराना चाहिए, कि किस प्रकार उनके बुजुर्गों ने उन्हें पालने के लिए कष्टों को सहा है ।

आज उनके सामने अपने पशुओं को जीवित रखने के साथ अपने जीवन को सुधारने का भी संकट वन अधिनियम 1980 के चलते संकट में आ गया है ।जिस का शीघ्र समाधान किया जाना है।मोहम्मद शाहदात ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि यह दो दिवसीय सम्मेलन उत्तराखंड के वन गुर्जरों, घुमंतू पशुपालकों की संस्कृति और जीवन शैली को सभी तक पहुंचाने का एक सार्थक प्र इस सम्मेलन में देश के पांच राज्य उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र ,गुजरात और यूपी से लगभग 300 प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं। जिसमें गुर्जर ट्राईबल युवा संगठन महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, जिसकी पहल पर यह सम्मेलन आयोजित किया गया है ।

उन्होंने बताया कि कुमाऊं गढ़वाल और कुमाऊं मंडल के उधम सिंह नगर एवं नैनीताल जनपद तथा गढ़वाल के हरिद्वार, देहरादून ,पौड़ी ,टिहरी ,उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग जनपद में पशुओं के संग स्थाई एवं अस्थाई रूप से प्रवास करने वालो की समस्याओं को लेकर इस सम्मेलन में चर्चा की ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌गई।

27 मार्च को कुनाओ चोड में पशु मेला भी लगाया जाएगा। सम्मेलन में पहले दिन कासिम कणी, अमीर हमजा, अवधेश कौशल ,अमित राठी, फैजान कोसवाल आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

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